वह घर था सागर के किनारे, सागर मुझे पसंद है। सीने में सपने पालना जिसने मुझे सिखाया था; और लहरों के शोर से आतुर कर दिया था मेरा दिल।
कई मंजिलो वाले राजमहल जैसा, उस घर की बालकनी में, आज भी स्पष्ट दिखाई देती है रक्तरंजित मेरी परछांई; और देखोगे, आते हुवे या जाते हुवे जहाजों को लेकर सागर के मनोरम नजारें।
अपने वजूद को जताती हुई, इस पार या उस पार हाथ ऊँठाकर खड़ी हैं स्टेचु आँफ लिबर्टी ! और आकाश-हवा निनादित करती हुई शब्द विहीन मेरी सिसकी।
तुम्हारी चौकन्नी नजरों के उस कारागार में आज भी लटक रही हैं लाल-हरी मेरी कमीज! कहीं आज भी क्या चुपके से हैं खड़ी ! बकुल के फूल बटोरने की चाहत में उन दिनों की तरह भागने वाला मेरा मन ? डस्टबीन की जुठन में छटपटाता मेरा कटा हुआ हाथ किसे क्या कहना चाहता है।
शाप भ्रष्ट धरती को उद्धार करने या फिर कमोड के कीचड़ में गाड़ने के लिये खण्डहरों में सुनाई देती है समागतों का समस्बर की चीत्कार ध्वनि।
मैं समझती हूँ और तैयार भी हूँ ! ऐसे बहुतों कलियां कुचल कर सुख गई हैं बहुतों गीतों ने ताल भूल गए हैं।
समय आज भी रुका हुआ है। उङे नहीं हैं आभी भी युगांतरों का प्यासा पक्षी ! यांत्रिकता के तार में लटक कर कैद हैं सरलता, ठीक मेरी कमीज की तरहा।
आह ! लटकी हुई मेरी लाल-हरी कमीज।