चौराहे की नुक्कड़ पर एक चाय की दुकान
कर्फ्यू की वज़ह से जो बंद थी।
लंगड़ाकर चलने वाला एक बेसहारा बूढ़ा
दुकान का मालिक था।
मुड़ी के साथ भूना हुआ सूखा चिउरा
और फीकी चाय की प्याली
भूखी रात के लिये जिसने चुपचाप बेचा था।
चलना भी जो नहीं सीख पाई
ऐसी एक बेटी के साथ
सद्यः विधवा एक बहू, जलकर ख़ाक हुए गाँव से
भागी हुई क्षुधातुर क्रेता थी।
राह भूलकर राह ढूंढते हुए
जो सूरज का सुराग खो बैठी थी
दुकान के पीछे
झुरमुट में ठिकाना ढूंढ़ रही थी।
मौका पाकर उस अवसरवादी दुकानदार ने,
फीकी चाय की जगह
अपना मुरझाया हुआ दिल बेचा था।
बून्द-बून्द लाल पानी टपकता हुआ
खरीद ने के लिए कोई भी हाथ नहीं बढ़ानेवाला
स्याह-नीले रंग का
जो उसके हाथ में ही पुराना होकर रह गया था।
हेमंत के अंत में पेड़ से झड़कर गिरने वाले पत्ते की तरह
विधवा का दिल था ताज़ा पीला।
भले ही हमारे हाथो में हो एक एक पतंग
नहीं उड़ाने पर ढह जाता है रिश्ते का टीला
जिस मोह में नातिन को उस दिन
बूढ़े ने अपने सीने से लगा लिया था।