चौराहे की नुक्कड़ पर एक चाय की दुकानकर्फ्यू की वज़ह से जो बंद थी। लंगड़ाकर चलने वाला एक बेसहारा बूढ़ादुकान का मालिक था। मुड़ी के साथ भूना हुआ सूखा चिउराऔर फीकी चाय की प्यालीभूखी रात के लिये जिसने चुपचाप बेचा था। चलना भी जो नहीं सीख पाईऐसी एक बेटी के साथसद्यः विधवा एक बहू, जलकर…
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तुम आए आख़िरकार (अनुबादकः दिनकर कुमार)
तुम आओगे !वैसा कोई गहरा यकीन नही था मुझे किसी दिन,मगर, तुम आए आख़िरकार। खो जाना ही होगा सबको एक दिन!जिस तरह खुश्बू खो जाती है हवा के किसी अंजान मुल्क मेंजितनी भी कोशिश करें,चाहत रुक नही सकती किसी कोचिर दिन चिर काल। हम सभी, क्रमश: लुप्त हो जाने के इंतज़ार में खड़े, एक-एक बिंदु…
लटकी हुई मेरी लाल-हरी कमीज (अनुबादकः किशोर कुमार जैन)
वह घर था सागर के किनारे, सागर मुझे पसंद है। सीने में सपने पालना जिसने मुझे सिखाया था; और लहरों के शोर से आतुर कर दिया था मेरा दिल। कई मंजिलो वाले राजमहल जैसा, उस घर की बालकनी में, आज भी स्पष्ट दिखाई देती है रक्तरंजित मेरी परछांई; और देखोगे, आते हुवे या जाते हुवे…